Home Indian History 18 वीं सदी में भारत
अठारहवीं शताब्दी में भारत ब्रिटेन के अधीन हो गया और पहली बार इतिहास में वह एक ऐसी विदेशी शक्ति द्वारा शासित होने लगा जो हजारों मील की दूरी से उसके शासन की बागडोर को संभाले हुई थी और उसके भविष्य का निर्णय कर रही थी ।
तेरहवीं शताब्दी में मुसलमान विजेताओं के सामाज्य स्थापित करने से भारत में एक नई संस्कृति ने प्रवेश किया । इस प्रक्रिया से एक जटिल स्थिति पैदा हुई , यद्यपि इससे भारतीय समाज के जातीय एवं आर्थिक आधार में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ । उद्योग और व्यापार की पद्धति में कोई आधारभूत परिवर्तन नहीं हुआ और वे ज्यो - के - त्यों चलते रहे । हिन्दू और मुस्लिम समाज का दो वर्गो - अधिकार सम्पन्न भूस्वामी शासक वर्ग तथा प्रशासन - कार्यों में भाग न लेने वाला अधिकारहीन लोक वर्ग में विभाजन कायम रहा । राजनीतिक प्रणाली में भी कोई अंतर नहीं आया । प्रशासन और जनता का संबंध कच्चे धागे से बंधा था , क्योंकि प्रशासन का कार्य - क्षेत्र सीमित था , जैसे - प्रतिरक्षा के विचार से और अव्यवस्था को रोकने के लिए एक सेना खड़ी करना , और सेना का खर्च उठाने के लिए करों की उगाही करना आदि । विधि - निर्माण उसके कार्य - क्षेत्र से था । इसी प्रकार न्याय - व्यवस्था का अधिकांश भाग भी उसके कार्य - क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं आता था । विधान - निर्मात्री संस्थाएँ नहीं थीं और दीवानी तथा व्यक्तिगत मामले अधिकतर गैर - सरकारी संस्थाओं द्वारा निबटाए जाते थे ।
धार्मिक क्षेत्र में , निम्न वर्ग अंधविश्वासों में डूबा हुआ था जबकि अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग पर इस्लाम का प्रभाव कम पड़ा । परन्तु हिन्दू - मुसलमानों में विचारों का आदान - प्रदान हुआ और फलतः हिन्दुओं में कई नए मतों तथा संप्रदायों ने जन्म लिया । साहित्य और कला के क्षेत्र में हिन्दू - मुस्लिम शैलियों का बहुत अधिक सम्मिश्रण हुआ । कानून के क्षेत्र में पारस्परिक आदान - प्रदान कम हुआ । यद्यपि सांस्कृतिक सामंजस्य कायम हुआ , किन्तु वर्ग और संप्रदाय के कठोर साँचे में जकड़े होने के कारण , राष्ट्रीय चेतना जागृत नहीं हो पाई । न तो राज्य ने इस चेतना को बढ़ावा दिया और न ही आर्थिक एवं सामाजिक विकास ने , प्रादेशिक देशभक्ति या व्यक्ति की समस्त देशवासियों के साथ एकरूपता की भावना को बढ़ावा दिया ।
औरंगजेब के काल में मुगल साम्राज्य अपनी उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचने के बाद पतन की ओर जाने लगा । 1707 ई ० में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया और भी तेज हो गयीं । औरंगजेब के बाद उसके पुत्र बहादुर शाह के निधन से 1712 ई ० में मुगल राजनीति और उत्तराधिकार के युद्धों में एक नवीन तत्व ने प्रवेश किया । अब तक शक्ति के लिए संघर्ष केवल शाही राजकुमारों में हो रहा था और सामंत उनके सिंहासनारुढ़ होने में सहायता करते थे । लेकिन अब महत्वाकांक्षी सामंत स्वयं शक्ति प्राप्त करने के लिए दावेदार बनकर और राजकुमारों को अपने हाथों की कठपुतली बनाकर उधिकार के युद्धों में भाग लेने लगे । बहादुर शाह का अयोग्य पुत्र जहाँदार शाह शक्तिशाली जुल्फिकार खाँ की सहायता से 1712 ई ० के उत्तराधिकार गृहयुद्ध में सफल हुआ लेकिन उसको सैयद माइयां . हुसैन अली और अब्दुल्ला खाँ ने 1713 ई ० में मारकर फरुखसियर को गद्दी पर बैठा दिया । फखसिथर के पडयों से तंग आकर सैयद भाइयों ने उसको भी मरवा दिया और युवा भाडया को गद्दी पर बिठाकर . फिर उनको भी हटा दिया और मुहम्मद शाह को गद्दी पर बिठाया । मुहम्मद शाह ने षडयंत्र करके सैयद भाइयों को मरवा डाला और निजाम - उल - मुल्क को अपना मंत्री बनाया । लेकिन निजाम - उल - मुल्क शासन की शिथिलता और दरबारी षडयंत्रों से परेशान होकर दक्षिण चला गया जहाँ उसने हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की । 1724 ई ० में मुगल साम्राज्य का विघटन आरंभ हो गया था।
अवध: अवध के स्वतंत्र राज्य की स्थापना सआदत खां बर्हन - उल - मुल्क ने की जो 1722 ई ० में अवध का सूबेदार नियुक्त हुआ था । वह वीर , साहसी तथा महत्वाकांक्षी व्यक्ति था जिसने 1739 तक अपना पद पैतृक कर लिया और एक स्वतंत्र शासक भी बन गया ।
बंगाल: केन्द्रीय सत्ता की बढ़ती हुई दुर्बलता का लाभ असाधारण योग्यता वाले दो व्यक्तियों ने उठाया । ये व्यक्ति थे - मुर्शीद कुली खाँ और अलीवर्दी खाँ । उन्होंने बंगाल के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की , यद्यपि कुली खाँ मुगल सम्राट को वार्षिक कर भेंट करता रहा ।
मराठा : पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य के सबसे बड़े शत्रु मराठे थे और वे ही मुगल शक्ति का स्थान ले सकते थे । लेकिन उनमें एकता का अभाव था और अखिल भारतीय सामाज्य स्थापित करने के लिए न उनके पास कोई दृष्टि थी और न कोई कार्यक्रम था । मराठे मुगलों के वारिस इसलिए न बन सके क्योंकि उनकी सामाजिक - आर्थिक व्यवस्था मुगलों की भांति पतनोन्मुख थी । मराठे यद्यपि मुगल सामंतों की भांति स्वार्थी और महत्वाकांक्षी थे लेकिन उनकी तरह अनुशासित नहीं थे । येशवा की शक्ति क्षीण होने से मराठा सरदार भी उत्तर में अर्ध - स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में लग गये । इनमें बड़ौदा के गायकवाड़ , नागपुर के भोसले , इंदौर के होल्कर और ग्वालियर के सिंधिका सबसे महत्वपूर्ण सरदार थे ।
अशताब्दी के आरंभ में मुगल साम्राज्य का डांचा चरमराने लगा । सत्ता की दुर्बलता का शासन की आर्थिक स्थिति पर दुष्प्रभाव पड़ा । राजस्व घट गया . संचार - साधन लड़खड़ा गए और उद्योग ,व्यापार तथा कृषि का स्वरूप क्षेत्रीय हो गया । केन्द्र - विरोधी शक्तियाँ हावी होने लगी , न्याय व्यवस्व निगट गई वैयक्तिक एवं सार्वजनिक नैतिकता हिल गई । साम्राज्य के टुकड़े - टुकड़े हो गए और विदेशी आक्रमण तथा आंतरिक शत्रुओं का मुकाबला करने की उसकी शक्ति टूट गई ।
1738-39 ई ० में नादिर शाह के आक्रमण ने सामाज्यिक अर्थव्यवस्था को अव्यवस्थित करके देश की आर्थिक स्थिति बिगाड़ दी । कंगाल सामंत किसानों से निष्ठुरतापूर्वक लगान वसूल करके अपनी आर्थिक दशा सुधारने का प्रयत्न करने लगे । ये ही सामंत उच्च पदो पर और समृद्ध धनी जागीरों के लिए परस्पर लड़ने लगे । मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद 1748 ई ० में गृहयुद्ध इन्हीं बेईमान सामंतों के मध्य छिड़ गया । उत्तर - पश्चिमी इलाको की असुरक्षित स्थिति के कारण अब्दाली के लगातार आक्रमणा से मुगल साम्राज्य के विध्वंस में और भी तेजी आई । नादिर शाह और अब्दाली के आक्रमणों और मुगल सामंतो के आत्मघाती आंतरिक संघर्ष से 1761 ई ० तक मुगल सम्राट का वास्तविक शासन दिल्ली और आगरा के आसपास तक सीमित हो गया था । वैसे भारत के अधिकांश भाग पर अब भी वह अपनी विधिसम्बत सत्ता का दावा करता था , खिताब देता था तथा नियुक्तियों की पुष्टि करता था । मुगल साम्राज्य के वंशज अब उत्तराधिकार के युद्धों में सक्रिय रुप से भाग नहीं ले रहे थे , किन्तु अन्य महत्वाकांक्षी दावेदार उनकी आड़ में शक्ति हथियाने की कोशिश कर रहे थे ।
अठारहवीं शताब्दी के उत्तराधिकार संबंधी युद्ध बहुत भीषण और विनाशकारी साबित हुए , क्योंकि इनमें हजारों लोग मारे गए और संपत्ति की भारी क्षति हुई । हजारों प्रशिक्षित सिपाही और सैकड़ो योग्य सेनापति और कार्यकुशल अफसर मारे गए । सामंत वर्ग भी , जो साम्राज्य की आधारशिला था , संघर्ष में स्वयं उलझ गया । कई स्थानीय शासक और कर्मचारियों ने केन्द्र की अनिश्चित दशा और अराजकता का लाभ उठाकर अपनी शक्ति सुदृढ़ करके स्वशासन स्थापित किया और अपने पद को भी पैतृक कर लिया । अधिकतर सामंत राज्य और समाज के हित के लिए लड़ने के बदले अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुए थे । इससे साम्राज्य एक सुसंबद्ध इकाई नहीं रह गया और यह विदेशी विजेताओं का शिकार बन गया । इसके लिए दोषी वे ही सामंत थे जो सबसे सक्रिय और योग्य थे , क्योंकि इन्हीं सामंतो ने मुगल साम्राज्य की एकता को अपने निजी राज्यों की स्थापना करके भंग किया था । उत्तरकालीन मुगल सामंतों का पतन निजी चरित्रहीनता के कारण नहीं बल्कि लोकहित की भावना के अभाव और अदूरदर्शिता के कारण हुआ था । ये ही कमजोरिया मराठा शासकों , राजपूत राजाओं , जाट , सिख , बुंदेला और नव - स्थापित स्वतंत्र राज्यों के शासकों में भी मौजूद थी और ईस्ट इंडिया कंपनी ने इनका पूरा लाभ उठाया । जागीरों की अल्पसंख्या , विद्यमान जागीरों से प्राप्त आमदनी में कटौती होने तथा सामंतों के खर्च में वृद्धि होने से , सामंतों ने सिपाहियों के कोटे में कटौती कर दी जिससे सामाज्य की सैनिक शक्ति क्षीण हो गयी ।
इस तरह स्पष्ट है कि 18 वीं सदी के मध्य में भारत की आंतरिक स्थिति अनिश्चितता एवं भविष्य के परिवर्तन के दौड़ से गुजर रही थी ।
कंपनी की प्रगति का प्रथम चरण अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के विघटन से आरंभ हुआ और वह भारतीय शासकों की और उन भारतीय व्यापारियों की इच्छाओं से प्रभावित हुआ जो स्वयं की भारत के व्यापारिक क्षेत्र में प्राथमिकता चाहते थे । मुगल साम्राज्य में सम्राट और उनके प्रतिनिधि यद्यपि यूरोपीय व्यापारियों से व्यापार करना चाहते थे लेकिन किसी खास समुदाय पर उनकी कृपादृष्टि नहीं थी । ईस्ट इंडिया कंपनी अपने यूरोपीय प्रतिद्वन्द्रियों की अपेक्षा भारत में एकाधिकार और चुंगी में छूट चाहती थी । लेकिन वह भारतीय शासकों को प्रभावित न कर सकी , इसलिए वह एक व्यापारिक कंपनी मात्र ही रह गई और उसको भारत में कंपनी का आधार स्थायी करने में भी कठिनाई हो रही थी ।
कंपनी साम्राज्यवादी विचारों से हमेशा प्रभावित थी । उसकी नीतियों का उद्देश्य भारतीय राज्यों को बिटिश आधिपत्य में लाना था जिससे ब्रिटेन के राजनीतिक एवं आर्थिक हितों की वृद्धि हो । कंपनी ने घेरे की नीति ( Ring - Fence Policy ) , तटस्थता और अहस्तक्षेप की नीति , सहायक संधि प्रणाली , सामाज्य - विस्तार की नीति , युद्ध द्वारा और बिना युद्ध के राज्य - अपहरण ( विलय ) की नीति ( Doctrine of lapse ) के द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की । इन सब नीतियों का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार तथा भारत का आर्थिक शोषण करना था । ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए क्लाइव से कैनिग तक , हर बिटिश प्रशासक कोई भी तरीके अपनाने के लिए तैयार थे ।
अठारहवीं शताब्दी के अंत तक भारत यूरोपीय व्यापारियों और लुटेरों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना रहा । उस समय अंग्रेज समाज शिथिल था और भारतीय समाज का अपकर्म हो रहा था । वारेन हेस्टिग्स के मुकदमे के समय से ब्रिटेन के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया और सुधारवादी अंग्रेज भारत में दिलचस्पी लेने लगे । इसाई धर्म - प्रचारक भी पहले चोरी - चोरी , फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की अनुमति से भारत में प्रवेश करने लगे ।
ब्रिटिश इतिहासकार जब इतिहास लिख रहे थे तब भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना हो रही थी ब्रिटिश सरकार भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीय भावना को कुचलने का प्रयत्न कर रही थी । ईस्ट इंडिया कंपनी के डाइरेक्टरों ने आक्रामक नीति का निषेध किया था लेकिन कंपनी के कारिंदों ने अपनी नीति को न्यायसंगत दिखाने के लिए और स्वयं को निरपराध साबित करने के लिए वास्तविकता को छिपाया और ब्रिटिश सरकार को वही बताया जो वह सुनना चाहती थी ।
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