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1857 की क्रांति की असफलता के कारण

 
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1857 की  विद्रोह–आजादी के लिये 1857 की क्रांति में सभी वर्ग के लोगों ने अपना सहयोग दिया था परन्तु यह  विद्रोह विफ़ल रही।इसके पीछे न स्पष्ट उद्देश्य था, न आवश्यक तैयारियां थीं, न उचित प्रशिक्षण था, न संसाधन थे, न आधुनिक हथियार, न केंद्रीय नेतृत्व, न आपसी एकता, न ही समाज के सभी वर्गों की एकजुटता। इसे व्यापक रूप से एक साझा एवं महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं बनाया जा सका। फलत: यह सीमित क्षेत्र में कुछ रजवाड़ों और कुछ सैनिक-गुटों में सिमट कर रह गया। इसे धार्मिक रूप देने का प्रयास भी अंततः अहितकर सिद्ध हुआ।

पूर्व  योजनानुसार 31 मार्च,1857 का दिन संपूर्ण भारत में एक साथ विद्रोह करने हेतु तय किया गया था, किन्तु दुर्भाग्य से 29 मार्च,1857 को मंगल पांडे ने विद्रोह का झंडा खङा कर दिया। यह समाचार तत्काल मेरठ पहुँचा और 10मई, 1857 को मेरठ में भी विद्रोह हो गया। इस प्रकार अपरिपक्व अवस्थामें विद्रोह करने से असफलता तो निश्चित ही थी।

विद्रोह में बहुत से राजा ऐसे भी थे , जो मात्र अपनी मांगों के पूरा न होने पर विद्रोह में शामिल हुए जबकि पहले वे अंग्रेजों की पेंशन ले रहे थे। उन्हें किसी युद्ध और लड़ाई का अनुभव भी नहीं था। दूसरी तरफ भारत के अधिकांश  रजवाड़े अंग्रेजों के चमचे थे

1857 के विद्रोह की असफलता के कारण कई थे। यह विद्रोह अपने तात्कालिक उद्देश्यों को पाने में असफल रहा। किन्तु इसके दूरगामी परिणाम बहुत महत्वपूर्ण रहे। विद्रोह की असफलता के कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

संगठन का अभाव:-

विद्रोह की असफलता का सबसे बड़ा और मुख्य कारण था "संगठन का अभाव"। विद्रोहियों में वीरता की कमी नहीं थी। किन्तु विद्रोह के उद्देश्य, स्थान व क्षेत्र की भिन्नता के कारण कोई मजबूत संगठन तैयार नहीं हो सका। अतः यह विद्रोह अखिल भारतीय आन्दोलन का रूप धारण नहीं कर पाया। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी सेना संगठित व आधुनिक हथियारों से सुसज्जित थी।.                                                                                                      यह विद्रोह स्थानीय, सीमित तथा असंगठित था। बिना किसी पूर्व योजना के शुरू होने के कारण यह विद्रोह अखिल भारतीय स्वरूप धारण नहीं कर सका और भारत के कुछ ही वर्गों तक सीमित रहा।

कुशल नेतृत्व का अभाव:-

विद्रोह को ठीक तरह से संचालित करने वाला कोई योग्य नेता नहीं था। यद्यपि विद्रोहियों ने बूढे बहादुरशाह को अपना नेता मान लिया था, लेकिन बूढे बहादुरशाह से सफल सैन्य – संचालन एवं नेतृत्व की आशा करना निराशा मात्र थी।प्रमुख नेता नाना साहब चतुर अवश्य था, किन्तु वह सैन्य-संचालन में निपुण नहीं था। तांत्या टोपे का चरित्र उच्च था, किन्तु उसमें सैनिक योग्यता नहीं थी। सर्वाधिक योग्य नेताओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा जगदीशपुर का जमींदार कुंवरसिंह थे। रानी लक्ष्मीबाई वीर होते हुए भी अनुभवहीन थी। कुंवरसिंह भी वीर था, लेकिन पूर्णत: वृद्ध था तथा सभी उसे नेता मानने को तैयार न थे। इस प्रकार विद्रोह का कोई ऐसा योग्य नेता नहीं था, जो सबको संगठित कर संघर्ष को सफलता के द्वार तक पहुँचा सके

राजपूत ,सिक्ख व गोरखे अपनी वीरता के लिए विश्वविख्यात थे। कुछ इने-गिने स्थानों को छाङकर राजपूतों ने विद्रोह के प्रति उदासीनता प्रदर्शित की।सिक्खों ने ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन करना ही उचित समझा।

विद्रोहियों के पास जहाँ सक्षम नेतृत्व का अभाव था, वहीं कंपनी का लारेंस बंधु, निकोलसन, आउट्रम, हैबलाक एवं एडवड्र्स जैसे योग्य सैन्य अधिकारियों की सेवाएँ प्राप्त थीं। विद्रोह में आधुनिक शिक्षाप्राप्त भारतीयों का सहयोग विद्रोहियों को नहीं मिला। वे भारत के पिछड़ेपन को समाप्त करना चाहते थे तथा उनके मन में यह भ्रम था कि अंग्रेज आधुनिकीकरण के माध्यम से इस काम को पूरा करने में उनकी मदद करेंगे। वे यह मानते थे कि विद्रोही देश में सामंतवादी व्यवस्था पुनः स्थापित कर देंगे।

देशी राज्यों व सामन्तों का राजभक्त बने रहना:-

देखा जाए तो विद्रोह की प्रकृति के मूल में सामंतवादी लक्षण थे। एक तरफ अवध, रुहेलखण्ड तथा उत्तर भारत के सामंतो ने विद्रोह का नेतृत्व किया,तो दूसरी ओर पटियाला, जींद,पंजाब,बंगाल,ग्वालियर तथा हैदराबाद के राजाओं सामन्तो ने अंग्रेजों के मित्र बने रहे। इन्होंने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों का सहयोग दिया।  इसका प्रमाण कैनिंग के बयान में मिलता है   विद्रोह के शमन के पश्चात इन भारतीय राजाओं को पुरस्कृत किया गया। निजाम को बराड़ का क्षेत्र लौटा दिया गया और उसके सभी ऋण माफ कर दिये गये।

प्रायः सभी भारतीय नरेशों ने विद्रोह का दमन करने में अंग्रेजों का साथ दिया। सिंधिया के मंत्री दिनकरराव तथा निजाम के मंत्री सालारजंग ने अपने-2 राज्य में क्रांति को फैलने नहीं दिया। राजपूताना के नरेशों ने भी अंग्रेजों की भरपूर सहायता की। विद्रोह काल में स्वयं केनिंग ने कहा था कि, यदि सिंधिया भी विद्रोह में शामिल हो जाय तो मुझे कल ही बिस्तर गोल करना पङ जाय।इसी प्रकार मैसूर का राजा, पंजाब में सिक्ख सरदार,मराठे और पूर्वी बंगाल आदि के शासक भी शांत रहे। यदि वे सभी मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध व्यूह-रचना करते तो अंग्रेजों को अपनी जान के लाले पङ जाते।


नर्मदा का दक्षिण भाग पूर्णतः शांत रहा। यदि उत्तर भारत के साथ-2 दक्षिण भारत भी विद्रोह में कूद पङता तो इतने विशाल क्षेत्र में फैले विद्रोह को दबाना असंभव हो जाता। विद्रोह के प्रमुख केन्द्र बिहार,अवध,रूहेलखंड, चंबल तथा नर्मदा के मध्य की भूमि एवं दिल्ली ही थे।

निश्चित उद्देश्य का अभाव:-

 विद्रोहियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। विद्रोहियों के सामने ब्रिटिश सत्ता के विरोध के अतिरिक्त कोई अन्य समान उद्देश्य नहीं थाा। उन्हें आगे क्या कराना होगा, यह निश्चित नहीं था। वे तो भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहा रहे थे।

विद्रोहियों ने अलग-अलग उद्देश्य को लेकर विद्रोह किया था। जो निजी स्वार्थ से प्रेरित था। उनके पास ठोस लक्ष्य और स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले क्षण क्या करना होगा यह निश्चित न था, वे मात्र भावावेश और परिस्थितिवश आगे बढ़ रहे थे। विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा कि "यदि लोगों के समक्ष सुस्पष्ट रूप से एक नया आदर्श रखा गया होता तो स्थिति कुछ और होती।"

विद्रोहियों के पास भविष्योन्मुख कार्यक्रम, सुसंगत विचारधारा या भावी समाज की कोई रूपरेखा नहीं थी। किसी श्चित योजना के अभाव के साथ ही ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकनें के पश्चात् वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के बारे में उन्हें कोई ज्ञान नहीं था। इसके अलावा, वे आपस में भी एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखा करते थे।

 विद्रोहियों को उपनिवेशवाद की कोई विशेष समझ नहीं थी जो कि एक ऐसी विचारधारा थी जिसके सहारे ब्रिटेन पूरे विश्व में अपनी जड़ें फैला चुका था। अतः इस विद्रोह का असफल होना अवश्यंभावी था।

निश्चित  साधनों की कमी:-

अंग्रेजों के साधन विद्रोहियों के साधनों की अपेक्षा बहुत अधिक मात्रा में तथा उन्नत किस्म के थे। जहाँ भारतीय विद्रोही परंपरागत हथियारों, तलवार और भालों से लड़े, वहीं दूसरी ओर अंग्रेज सेना आधुनिकतम हथियारों से लैस थी। तार-व्यवस्था जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकी के उपयोग ने अंग्रेजों की ताकत कई गुना बढ़ा दी।   


Web Title:  Indian History 1857

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