Home Indian History मराठा साम्राज्य के पतन
मुगलों को धूल धूसरित करने में मराठों का बहुत हाथ था। उसके पतन के बाद मराठे भारत की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में भारतीय राजनीति में उभरे। उनसे आशा की जाती थी कि मुगल सम्राज्य के ध्वंसावेश पर वे अपने राजनीतिक प्रभुत्व की इमारत गढने में सफल होंगे ।इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किया परंतु उनकी राजनीतिक प्रभुत्व की इमारत बनने से पहले ही लड़खड़ा कर ताश के पत्ते की भांति बिखर गई। जिस मराठा साम्राज्य को शिवाजी महाराज ने अपनी प्रतिभा और खून से सींचा था वह छिन्न-भिन्न हो कर बिखर गया।
मराठा सरदारों में आपसी नफरत करना :-
मराठा सरदार अपने आप को मान समझते थे। खुद ही मुख्य सरदार बनना चाहते थे। जिसके कारण इनमें आपसी मतभेद था। जिनमे सिंधिया, होल्कर भोसले, गायकवाड़ आदि थे। यह आपस में लड़ाई करते रहते थे। होल्कर ने अंग्रेज मराठा युद्ध में सिंधिया तथा भोंसले का साथ नहीं दिया। इसके बाद होल्कर को भी अकेले ही अंग्रेजों से युद्ध करना पड़ा अतः मराठा सरदारों की आपसी कारण से अंग्रेजों की विजय हुई व मराठों का पराजय हुए। यदि इनमे आपस में लड़ाई नहीं होती तो मराठे भी इस युध्द में जीत सकते थे।
भौगोलिक ज्ञान का अभाव:-
किसी भी युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए आवश्यक है--आस-पास के क्षेत्रों का विशद भौगोलिक ज्ञान। लेकिन मराठों को अपने आस-पास के क्षेत्रों का समुचित भौगोलिक ज्ञान नहीं था। इसके अभाव में मराठे युद्ध के समय गंभीर स्थिति में फंस जाते थे। इसके विपरीत अंग्रेजों को मराठा राष्ट्र की भौगोलिक स्थिति का पूरा ज्ञान था। इसी ज्ञान के आधार पर वे अपनी रणनीति निर्धारित करते थे और मराठों को पराजित होना पड़ता था।
अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करके अपनी कूटनीति के द्वारा भी मराठों को पराजित किया। मराठा- ज्ञान विज्ञान के मामले में एकदम पिछड़े थे। अतःवे अंग्रेजों के सामने नहीं टिक सके।
सैन्य संगठन:-
मराठों के पतन का एक प्रमुख कारण उनका दोषपूर्ण सेनय-संगठन था। वे लुक-छिपकर करने वाले गुरिल्ला युद्ध में निपुण थे, लेकिन खुलकर मैदान में युद्ध करने की कला से वह पूरी तरह भिज्ञ नहीं थे। यदि गरिल्ला तरीके से लड़ाई लड़ते रहते तो यह सम्भव था कि उनकी शक्ति विनष्ट नहीं होती। लेकिन बदली परिस्थिति में यह असम्भव हो गया था। कारण यह था कि मराठों का साम्राज्य एक काफी विशाल साम्राज्य हो गया था। इस साम्राज्य में एक बहुत बड़ी आबादी निवास करती थी और विदेशी आक्रमण से उन्हें बचाना मराठा राज्य का कर्त्तव्य था। इस तरह का कार्य गुरिल्ला युद्ध में नहीं हो सकता था। मराठों को बाध्य होकर अपनी सामरिक कला में परिवर्तन करना पड़ा, जिससे उसकी हार निश्चित हो गयी। इसके अलावे भी, उनके सैन्य-संगठन में एक-दूसरी कमी रह गयी। उन्होंने अपनी सामरिक नीति को आधुनिक वैज्ञानिक ढंग पर संगठित नहीं किया। स्वत: वे ऐसा कर भी नहीं सकते थे। इसके लिए उन्हें यूरोपीय लोगों की मदद लेनी पड़ती, जिसके लिए वे तैयार नहीं थे। आधुनिक हथियार बनाने की कला तो उन्हें मालूम थी नहीं, यदि उनको बनाना चाहते तो उन्हें विदेशियों पर आश्रित होना पडता। कुछ विदेशी लोगों ने उन्हें हथियार देना शरू भी किया, लेकिन ऐसे जो भी हथियार आते थे वे ठीक नहीं होते और न समय पर पहुँच पाते थे। मराठों को नौ-सेना के विकास पर ध्यान देना चाहिए था, पर वे इसकी ओर से भी उदासीन ही रहे। इस हालत में उसकी पराजय निश्चित थी।
यदि मराठे गुरिल्ला युद्ध पद्धति तथा घुङसवार सेना तक अपने को सीमित रखते तो शायद अधिक सफल हो सकते थे। महादजी सिंधिया को छोङकर अन्य सभी मराठा सरदारों ने पुरानी पद्धति को ही अपनाये रखा। लेकिन गुरिल्ला पद्धति से वे अधिक सफल होते, इसमें संदेह है। यदि इस पद्धति से समस्त भारत में मराठा राज्य फैल भी जाता तो भी वह सुरक्षित नहीं रह सकता था, विशेषकर जब किसी विदेशी सत्ता से संघर्ष करना हो । सरदेसाई ने लिखा है कि मराठों में वैज्ञानिक युद्ध-पद्धति का अभाव था। जिसके परिणामस्वरूप मराठा सेना में कुशलता की कमी आ गयी। थी। इतिहासकार केलकर के अनुसार मराठों की असफलता का मुख्य कारण प्रशिक्षित कौशल के विकास की ओर ध्यान ही नहीं दिया, क्योंकि मराठा सेना की ऐसी धाक जम गई थी कि मराठा सेनाओं को देखते ही भयभीत राज्य की सेनाएँ हतोत्साहित हो जाती थी।
उनके पास आधुनिक ढंग के नवीनतम हथियारों से लैस सेना का अभाव था। उनके लड़ने भिड़ने के हथियार एकदम पुराने थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार मराठों की पराजय का एक मुख्य कारण था। मराठा युद्ध-पद्धति में सिद्धहस्त थे। लेकिन वदली हुई परिस्थिति में गुरिल्ला नीति को जारी रखना असंभव था। उन्होंने पाश्चात्य ढंग से अपनी सेना को सुसंगठित करने का प्रयास किया। पर इसे पूरी तरह नहीं अपना सके। इस प्रकार उनका सैन्य संगठन एवं युद्ध कला ना तो पुराना रहा और ना ही आधुनिकतम बन सका।अपनी सेना को आधुनिक बनाने के चक्कर में वे पुर्तगालियों तथा फ्रांसीसी विशेषज्ञों पर निर्भर रहने लगे।जिन्होंने आवश्यकता के सभ्य उन्हें धोखा दिया।
उनकी सेना में मराठा, राजपूत, पठान, रूहेले आदि विभिन्नजातियों और संप्रदायों के सैनिक थे। इससे उनकी सेना में राष्ट्रीय भावना लुप्त हो गई। उनमें वहशक्ति, सामर्थ्य और मनोबल नहीं था जो एक राष्ट्रीय सेना में होता है। मराठों के इन विविध सैनिक औरअधिकारियों में ईश्या और द्वेश विद्यमान था। इसलिये वे सामूहिक रूप से राष्ट्रीय भावना से युद्ध करने में असमर्थ रहे। मराठों की सेना आधुनिक युरोपीयन ढग़ं से प्रशिक्षित थी। मराठों ने यूरोपीयन ढंग से अपने अधिकारियों को प्रवीण नहीं करवाया था। अत: दूशित सैन्य संगठन भी उनके पतन का कारण बना।
योग्य नेतृत्व का अभाव:-
मराठों की पराजय का प्रमुख कारण योग्य एवं कुशल नेतृत्व न होना था।
किसी भी देश या किसी आंदोलन की सफलता योग्य नेतृत्व पर निर्भर करती है। दुर्भाग्य से अपने सुयोग्य नेताओं की आकस्मिक मृत्यु से मराठे कुशल नेतृत्व से वंचित हो गए। मराठा सरदारों में कूटनीतिक योग्यता का अभाव था।मुगल साम्राज्य के अस्तित्व को बनाये रखने के प्रयत्नों का परिणाम यह हुआ कि उन्हें व्यर्थ ही अहमदशाह अब्दाली से टक्कर लेनी पङी तथा राजपूत,जाट और सिक्ख जो मुगल सत्ता के क्षीण होने पर केन्द्रीय सत्ता से मुक्त होना चाहते थे, उनसे भी शत्रुता मोल लेनी पङी। मराठा सरदार इस बात की तो कल्पना ही नहीं कर सके कि उन्हें राजपूतों,सिक्खों और जाटों के सहयोग की आवश्यकता पङेगी। अतः जब अफगानों से संघर्ष हुआ, तब वे अकेले पङ गये।
इसके अतिरिक्त अठारहवीं सदी के अन्त तक एक-एक करके सभी योग्य मराठा सरदारों की मृत्यु हो गयी। महादजी सिंधिया की 1794 में.अहिल्याबाई होल्कर की 1795 में, पेशवा माधवराव की 1795 में, तुकोजी होल्कर की 1797 में और नाना फड़नवीस को 1800 में मृत्यु हो गयी। उसके पश्चात मराठों को दर्बल पेशवा बाजीराव द्वितीय और स्वार्थी एवं महत्त्वाकांक्षी दौलतराव सिंधिया तथा कर जैसे सरकार का नेतृत्व प्राप्त हुआ, जिनमें योग्यता और चरित्र दोनों की ही कमी थी। दूसरी तरफ, उसी अवसर पर अंग्रेजों को एलिफिंसटन, माल्कम आर्थर वेलेजली, जनरल लेक, लार्ड वेलेजली लॉर्ड हेस्टिंग्स जैसे योग्य राजनीतिज और सेनापति प्राप्त हुए थे। उस युग में भी बड़ व्यक्तियों और नेताओं की योग्यता र बहुत कुछ निर्भर करता था
पेशवा माधवराव, महादजी सिंधिया, यशवंतराव होल्कर जैसे प्रतिभासंपन्न समर्थ नेताओं के देहांतके बाद मराठों में ऐसा वीर, साहसी और योग्य नेता नहीं हुआ जो मराठों को एकता के सूत्र में बांधने में सफल होता। नाना फड़नवीस ने अव’य मराठों को पुन: संगठित करने का प्रयास किया, परंतु वह स्वयंदोषपूर्ण था और फलत: उसके विरूद्ध शड़यंत्र होते रहे। उसकी मृत्यु के बाद चरित्रवान, योग्य व समर्थनेतृत्व के अभाव में मराठा संघ विश्रृंखलित हो गया।
नाना फङनवीस की नीतियाँ:-
मराठों के पतन के लिए सभी आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण हो चुका था। और नाना फङनवीस की नीतियों ने उन परिस्थितियों को आर बल प्रदान कर दिया। चूँकि नाना का कार्यक्षेत्र केवल दक्षिण भारत था, अतः उसके लिए निजाम और टीपू ही मुख्य शत्रु थे। सालबाई की संधि के बाद,महादजी की इच्छा के विरुद्ध उसने टीपू की शक्ति को कुचलने के लिए अंग्रेजों को सहयोग दिया। जिसके परिणामस्वरूप टीपू के पतन के बाद दक्षिण भारत में शक्ति-संतुलन बिगङ गया और अब केवल अंग्रेज ही मराठों के एकमात्र प्रतिद्वंद्वी रह गये। नाना अपनी सत्ता सुरक्षित रखने के लिए किसी अन्य मराठा सरदार के महत्त्व को बढने ही नहीं देना चाहते थे। उसने तो सर्वाधिक योगेय सरदार महादजी सिंधिया पर भी कभी विश्वास नहीं किया। नाना ने अपने प्रभुत्व को बनाये रखने के लिए पेशवा माधवराव द्वितीय को न तो उचित प्रशिक्षण दिया और न उसे जीवन का कोई अनुभव होने दिया। अतः नाना फङनवीस की नीतियों ने मराठा संघ को अत्यंत ही दुर्बल अवस्था में लाकर खङा कर दिया।
आर्थिक व्यवस्था के प्रति उदासीनता:-
मराठों के राज्य की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उन्होंने अपने विशाल साम्राज्य के आर्थिक विकास पर समुचित ध्यान नहीं दिया और इस कारण उनकी आय के साधन बराबर अनिश्चित रहते थे। आर्थिक स्थिति की ओर उन्होंने जरा भी ध्यान नहीं दिया। इसका नतीजा अत्यन्त बुरा हुआ। वे पैसे की कमी बराबर महसूस करते रहे और इस हालत में जब भी उनके समक्ष पैसों की कमी हुई वे लूट-पाट कर इसकी पूर्ति करने लगे। मराठों के लिए यह काम एक मामूली बात हो गयी थी। लेकिन इस तरह से आमदनी प्राप्त करके किसी राज्य को नहीं चलाया जा सकता है। इसके चलते मराठा सरदारों ने जनता की सहानुभूति खो दी। जब तक मराठा राज्य छोटा था तब तक वे पास-पड़ोस के क्षेत्रों में लूट-पाट करते रहे, लेकिन जब उनका साम्राज्य विशाल हो गया तो इसके लिए जगह का अभाव हो गया। इस प्रकार मराठों की आर्थिक स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होने लगी और इसकी ओर उन्होंने ध्यान भी नहीं दिया।
देशी राज्यों की शत्रुता :-
अपने युग में मराठे देश की सर्वोच्च शिक्ता थे। अंग्रेजों से संघर्ष और युद्ध करने और उन्हें देश से बाहर करने के लिए अन्य भारतीय राजाओं का सहयोग आव’यक था। पर मराठों ने उनसे मैत्री सम्बन्ध स्थापित नहीं किये। यदि मराठों ने हैदरअली, टीपू और निजाम की समय पर सहायता की होती तो वे अंग्रेजों की शिक्ता का अन्त करने में सफल हो जाते।
मराठा देश की सबसे बड़ी ताकत समझे जाते थे।उनसे आशा की जाती थी की वे अपने नेतृत्व में देशी शक्तियों का संगठन कर अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करेंगे। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में मराठों को किसी विदेशी राज्य यहां तक कि राजपूतों का भी सहयोग या समर्थन नहीं प्राप्त हुआ। इसका कारण यह था कि मराठा आरंभ से ही राजपूतों,सिक्खों तथा अन्य मुसलमान शासकों के राज्य में लूटमार मचाते रहे थे। इस कारण आने के देशी राज्यों ने ईर्ष्यावश मराठों के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता की जिससे मराठों को पराजित करना आसान हो गया।
मराठों ने अंग्रेजों के प्रभाव को रोकने के लिये भारत की देशी शक्तियों के सहयोग की उपेक्षा की। राजपूतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करके उन्हें अपना शत्रु बना लिया था। मुगल बादशाह की ओर से मराठों ने जाट राजा सूरजमल पर आक्रमण करके जाटों को भी नाराज कर दिया।
अच्छे शस्त्रो का अभाव :-
मराठो के पास 200 भारी टोपे थी। जिन्हें उचित स्थान पर लाने में बहुत समय लग जाता था दूसरी ओर अब अब्दाली के पास 2000 की टोपे तथा बंदूक कितनी आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया करता था अब्दाली के सैनिकों ने बंदूकों का प्रयोग अधिक किया जिनसे मराठों को बहुत नुकसान हुआ वही। मराठों ने भाले और भारी टोपे का इस्तेमाल किया। इनके हथियार काम नहीं कर पाए। जिसके कारण यह अब्दाली की सेना से मुकाबला करने में सफल नहीं हो सके। जिससे मराठे युध्द में पराजय हो गए। इसके साथ मराठों का पतन हो गया।
अब्दाली की सेना की मात्रा बहुत थी, जबकि मराठों की सेना बहुत कम थी। अब्दाली की सेना में 45000 और द्वितीय श्रेणी के सैनिक 15000 थे। जबकि मराठों की सेना में 35,000 सैनिक थे और द्वितीय श्रेणी के सैनिक 5000 थे। अब्दाली की सेना ज्यादा होने के कारण यह अफगानी सेना युध्द में जित गयी।
मराठों की सैनिक दुर्बलता व दोषपूर्ण सैन्य व्यवस्था भी उनके पतन का कारण बनी। उनके पास तोपखाने का भारी अभाव था। अतएव साधनों के अभाव में मराठों की सेना अंग्रेजी सेना के समक्ष अधिक समय तक न ठहर सकी।
मराठों के राज्य में कतिपय चारित्रिक दुर्गुण थे, जिन्होंने इनके पतन में अहम भूमिका निभाई। उनमें जाति के आधार पर कोई संगठन नहीं बन सका। उन्होंने सामाजिक उन्नति एवं शिक्षा आदि के विकास के लिए कुछ नहीं किया।
मराठा राज्य के लोगों की एकता स्वाभाविक नहीं बल्कि कृत्रिम एवं आकस्मिक अतएव अनिश्चित थी। यह एकता शासक के असाधारण व्यक्तित्व पर निर्भर करती थी और जब देश ने अतिमानवों को जन्म देना बंद कर दिया तो यह एकता देश से लुप्त हो गई। विशाल मराठा साम्राज्य का संगठन सामंती व्यवस्था के आधार पर हुआ था। जब तक केंद्र शक्तिशाली रहा यह व्यवस्था कार्य करती रही और मराठा संगठित होते रहे । परंतु बाद में जब केंद्र शक्तिहीन हो गया तो विकेंद्रीकरण की प्रवृति जोर पकड़ने लगी।पेशवा धीरे-धीरे इस संघ का नाम मात्र का प्रधान रह गया। सभी सरदार स्वतंत्र राजाओं की तरह आचरण करने लगे। बाजीराव के मरने के बाद मराठों में संगठन एवं एकता का अभाव हो गया। व्यक्तिगत स्वार्थ,कलह,षड्यंत्र आदि के कारण मराठों का नैतिक पतन प्रारंभ हो गया।मराठों ने शिवाजी के आदर्शों को भुला दिया ।एकता एवं संगठन के अभाव में मराठा संघ का पतन अवश्यंभावी हो गया।
अंग्रेजो की सार्वभौमिकता-
अंग्रेज राजनीतिक और सैनिक शक्ति मे, सैनिक संगठन और रणनीति मे, कुशल नेतृत्व औरकूटनीति में मराठों से अत्याधिक श्रेष्ठ थे। अंग्रेजों ने मराठा शासकों को अलग-अलग करके परास्तकिया। मराठों में व्याप्त वैमनस्य और गृह-कलह का लाभ अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति से उठाया। मराठेअंग्रेजों को कूटनीतिक चालों की न तो जानकारी ही रख सके और न उनको समझ सके।अंग्रेजों की गुप्तचर व्यवस्था मराठों से श्रेष्ठ थी। अंग्रेज अपनी गुप्तचर व्यवस्था द्वारा मराठों कीवास्तविक सैन्य’’शक्ति, सैनिक और आर्थिक साधन, आंतरिक गृह-कलह एवं उनके सैनिक अभियानों कीपूर्ण जानकारी युद्ध करने के पूर्व ही ले लेते थे और इसका उपयोग वे मराठों को परास्त करने में करतेथे। जबकि मराठों की ऐसी कोई गुप्तचर व्यवस्था नहीं थी। अत: उसका परिणाम उनको भोगना पड़ा।
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