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अफीम युद्ध का इतिहास
जो यूरोपीय समस्त विश्व में अपनी शर्तों पर दबाब की राजनीति अपनाकर व्यापार कररहे थे उन्हीं यूरोपियों को चीन ने अपनी शर्तों पर व्यापार करने हेतु मजबूर किया। मंचूराजवंश ने विदेशियों पर व्यापार हेतु कई प्रतिबंध लगाये। इन व्यापारिक प्रतिबंधों का आलमयह था कि विदेशी कैन्टन एवं मकाओ की खिड़कियों से चीन में झाँक भर सकते थे। व्यापारकी समस्त शर्तें चीन द्वारा तय की जाती थीं।
1702 ई. में ‘सम्राट का व्यापारी’ नामक एक अधिकारी चीन की ओर से व्यापार हेतुनियुक्त किया गया। यूरोपीय व्यापारी इसी के माध्यम से चीन में व्यापार कर सकते थे।1752 ई. में मंचू सरकार ने इस एक व्यापारी की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। अबविदेशियों से व्यापार हेतु 13 व्यापारियों का एक संघ ‘को-हॉग माध्यम’ स्थापित किया गया।अब यूरोपीय इस ‘को-हॉग माध्यम’ द्वारा ही व्यापार कर सकते थे।
1715 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा कैन्टन में एक कोठी स्थापित की गई।प्रारंभ में विदेशी लोग चीन से चाय, रेशम एवं मिट्टी के बर्तन खरीदते थे। इनके बदले में चीनइन यूरोपियों से कुछ भी नहीं खरीदता था। अत: यूरोपीय व्यापारी चीनी माल की कीमत सोनाएवं चाँदी के रूप में चुकाते थे। इस प्रकार व्यापार संतुलन पूर्णत: चीन के पक्ष में था। परन्तुयूरोपियों ने धीरे-धीरे चीन में इंग्लैण्ड के कपड़ों एवं अमेरिकी फरों की माँग पैदा की। ब्रिटेनने व्यापार संतुलन को अपने पक्ष में लाने के लिये एक कूटनीति अपनायी। इस समय ईस्टइंडिया कम्पनी भारत में व्यापक पैमाने पर अफीम की खेती करा रही थी। अंग्रेज व्यापारियोंने तम्बाखू में अफीम मिलाकर चीन में तम्बाखू बाँटना आरंभ किया। धीरे-धीरे चीनवासियों कोअफीम सेवन का आदी बना दिया गया। अब धीरे-धीरे चीन में अफीम की माँग तेजी से बढ़नेलगी। अब अंग्रेजों को अत्यधिक मुनाफा होने लगा। चीन में अफीम की खपत से चीन को तीन प्रकार से नुकसान हुआ।
- चीनी जनता का नैतिक पतन आरंभ हो गया।
- व्यापारिक संतुलन इंग्लैण्ड के पक्ष में जाने लगा।
- चीन की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी।
इन सब कारणों से 1858 ई. में चीनी सरकार ने अफीम व्यापार को रोकने कठोरकार्यवाही की। इससे अंग्रेजों को जब हानि हुई तो वे भड़क उठे। इसका परिणाम अंग्रेज वचीन के मध्य प्रथम अफीम युद्ध के रूप में सामने आया।
प्रथम अफीम युद्ध 1839-1842 ई.
प्रथम अफीम युद्ध (1839-1842 ई.) ब्रिटेन की चीन में उपनिवेशवादी लालची प्रवृत्तिका परिणाम था। ब्रिटेन चीन में किसी प्रकार अपना लाभ प्राप्त करना चाहता था। जबसीधी उँगली से घी नहीं निकला तो ब्रिटेन ने टेड़ी उँगली की। नैतिक मानदण्डों को ताकपर रखकर अनैतिक तरीके अपनाये। चीन को जबरदस्ती अपने साथ व्यापार करने बाध्यकिया। चूँकि ब्रिटेन की नीति प्राय: यहीं रही कि पहले व्यापार द्वारा किसी भी देश में दाखिलहोना और फिर उस देश की राजनीति में दखल देकर उसे अपना उपनिवेश बनाने का प्रयासकरना। जब चीन ने अंग्रेजों की इस कूटनीतिक चाल में न फँसने का प्रयास किया तो चीनको अंग्रेजों के साथ प्रथम अफीम युद्ध का सामना करना पड़ा।
प्रथम अफीम युद्ध (1839-1842 ई..) के कारण
अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति :
अंग्रेजों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा प्रथमअफीम युद्ध का प्रमुख कारण थी। ब्रिटेन चीन में व्यापार करने एवं व्यापार संतुलनअपने पक्ष में करने आतुर था। मंचु शासकों की प्रतिबंधात्मक नीतियाँ ब्रिटेन की इसइच्छा में बाधाएँ उत्पन्न कर रहीं थीं। इस तनाव के कारण अन्तत: प्रथम अफीम युद्धआरंभ हुआ।
चीन द्वारा विदेशियों को हेय दृष्टि से देखना :
चीन के लोग अपने आपको श्रेष्ठसमझते थे एवं विदेशियों को हेय दृष्टि से देखते थे। जिन यूरोपियों को समस्त विश्वमें श्रेष्ठ दृष्टि से देखा जाता था उन्हें चीन का यह दृष्टिकोण रास नहीं आया।
कैन्टन में व्यापार :
अंग्रेज केवल कैन्टन की खिड़की में चीन में झाँक भर सकते थे।उन्हें चीन में अन्दर जाने की इजाजत नहीं थी। यहीं नहीं कैन्टन में भी वे मात्रव्यापारिक सीजन में रह सकते थे एवं इस समय भी उन्हें अपना परिवार मकाओ छोड़कर आना पड़ता था। व्यापारिक सीजन के अतिरिक्त अन्य समय उन्हें मकाओ में हीरहना पड़ता था। अंग्रेज इस प्रकार के प्रतिबंधों के कदापि आदी नहीं थे। इसलिये भीचीन एवं अंग्रेजों के मध्य तनाव विकसित हुआ।
को-हॉग माध्यम :
को-हॉग माध्यम 13 व्यापारियों का एक संघ था। ब्रिटेन इनकेमाध्यम से ही चीन में व्यापार करता था। यह माध्यम कम कीमत पर अंग्रेजों से सामानखरीद कर उसे अधिक कीमत पर चीन में बेचता था। अत: जो मुनाफा अंग्रेजों कोमिल सकता था, वह को-हॉग माध्यम को मिलता था। इससे अंग्रेज अत्यधिकअसंतुष्ट थे।
राजसंपर्क का अभाव :
मंचू सम्राट कैन्टन स्थित ब्रिटिश सुपरिन्टेन्डेंट से कोईसम्पर्क नहीं रखता था। उसका मानना था कि आपकी समस्यायें व्यापारिक हैं जिन्हेंको-हॉग माध्यम के साथ संपर्क कर सुलझाया जावे। ईस्ट इंडिया कम्पनी के 1833 ईमेंव्यापारिक एकाधिकार समाप्त होने के पश्चात् 1834 ई. में लार्ड नेपेयिर ब्रिटिशअधीक्षक बना। मंचू सम्राट ने इससे भी संपर्क रखने से इन्कार कर दिया। इससेअंग्रेज नाराज हुए। उन्होंने इसे देश का अपमान माना।
प्रार्थना पत्र का प्रश्न :
ब्रिटिश अधिकारी जब कोई पत्र संदेश पत्र के रूप में देतेथे तो चीनी अधिकारी उसे अस्वीकार कर देते थे। उनका कहना था कि वे प्रार्थना पत्रद्वारा माँग रखें। इससे भी संघर्ष की स्थिति बनी।
कोतो प्रथा :
मंचू सम्राट के सामने जाते वक्त विदेशियों को कोतो प्रथा का पालनअनिवार्य था। इस प्रथा के तहत तीन बार घुटने टेक कर, नौ बार माथा जमीन पररखना होता था। यूरापीय इसे अत्यन्त अपमानजनक मानते थे। अत: यह कोतो प्रथाभी तनाव का एक कारण थी।
राज्य क्षेत्रातीत अधिकार का प्रश्न :
1784 ई. में एक अंग्रेज की बंदूक से चीनीनागरिक मारा गया। चीनी सरकार ने उस अंग्रेज पर मुकदमा चला कर उसे मृत्युदण्ड दे दिया। अंग्रेजों का कहना था कि राज्य क्षेत्रातीत अधिकार के तहत उस अंग्रेजअपराधी को अंग्रेजों के सुपुर्द किया जावे तथा उन्हीं की अदालत में ब्रिटिश कानून केतहत उस पर मुकदमा चलाया जावेगा। 1793 ई. में मैकार्टन मिशन ने चीन से राज्य क्षेत्रातीत अधिकार की माँग की।साथ ही कैन्टन में अंग्रेजों को स्वशासन अधिकार देने की भी माँग की। चीन द्वारा इनमाँगों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। अब इन प्रश्नों का समाधान युद्ध द्वारा ही संभवथा।
अफीम व्यापार में वृद्धि :
1800 ई. में जो अफीम का व्यापार 4000 पेटी था वह1839 में बढ़कर 30,000 पेटी तक पहुँच गया। चीन में इस बढ़ते व्यापार का नैतिकएवं आर्थिक संकट देखते हुए मंचू सरकार ने 1838 में अफीम व्यापार को रोकने हेतुकठोर कदम उठाये। इससे अंग्रेज उत्तेजित हुए।
तात्कालिक कारण :
चीनी कमिश्नर लिन्तसे-हू-शू की 1839 ई. की कार्यवाहीप्रथम अफीम युद्ध का तात्कालिक कारण बनी। अफीम के तस्कर व्यापार को रोकनेके लिये मंचू सरकार ने कमिश्नर लिन्तसे को केन्टन भेजा। कमिश्नर ने अंग्रेजों केसमक्ष 2 माँग रखी – 1. विदेशी व्यापारी अपनी समस्त अफीम सरकार को सौंप दें। 2. भविष्य में अफीम व्यापार न करने का आश्वासन दें।
इस कार्यवाही के बाद ब्रिटिश व्यापारियों ने अपने पास स्थित 20,000 पेटीअफीम लिन्तसे को सौंप दी। इस अफीम को नमक एवं चूना मिलाकर नष्ट कर दियागया। परंतु अफीम व्यापार बन्द करने का अंग्रेजों ने कोई आश्वासन नहीं दिया।अफीम की पेटियों के इस प्रकार नष्ट होने से ब्रिटिश व्यापार अधीक्षक इलियटअत्यन्त नाराज हो गया, और इस घटना के कारण उसने चीन के साथ युद्ध छेड़दिया।
अंग्रेज एवं चीनियों के बीच 1839 से 1842 ई. तक पूरे तीन वर्ष युद्ध चला। अन्तत:चीन की पराजय हुई और उसे अंग्रेजों के साथ नानकिंग की संधि करना पड़ी।
नानकिंग संधि की समीक्षा
नानकिंग संधि से मंचू राजवंश की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा। ब्रिटिश बन्दूकों ने चीनमें एक ऐसा छेद कर दिया जिसके द्वारा अन्य यूरोपीय शक्तियों ने भी ब्रिटेन में प्रवेश किया।ब्रिटेन के पश्चात् 1844 ई. में अमेरिका ने चीन के साथ ह्वांगिया की संधि सम्पन्नकी। फ्रांस के साथ 1844 में हवामपोआ की संधि सम्पन्न की। 1845 में बेल्जियम के साथ एवं1847 में नार्वे व स्वीडन के साथ संधि संपन्न कर चीन ने उन्हें व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान की।इलियट एवं डाउसन के अनुसुसार अब चीन एक अन्तर्राष्टी्रय उपनिवेश बनगया।
यहाँ एक रोचक तथ्य है कि अफीम के व्यापार को लेकर यह युद्ध संपन्न हुआ थामगर अफीम व्यापार पर नियंत्रण संबंधी कोई संधि सम्पन्न नहीं हुई। अफीम का व्यापारनिर्बाध गति से चलता रहा।
द्वितीय अफीम युद्ध 1856-60 ई.
प्रथम अफीम युद्ध में चीन को परास्त तो ब्रिटेन ने किया मगर उसके पश्चात् धीरे-धीरे अन्य यूरोपीय शक्तियों ने भी चीन के साथ संधि कर सुविधाएँ प्राप्त की। अमेरिका केसाथ की गई ह्वागिया एवं फ्रांस के साथ संपन्न हवामपोआ की संधियों में यह व्यवस्था थीकि 10 वर्ष पश्चात् पुन: संधियों का पुनरीक्षण किया जायेगा। उधर ब्रिटेन, चीन में औरअधिक सुविधाएँ प्राप्त करना चाहता था। विदेशी शक्तियों ने जब चीन के समक्ष संधियों केपुनरीक्षण की माँग रखी तो चीन ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। अब अंग्रेजों को समझमें आ गया कि बिना युद्ध किये चीन से माँग मनवाना आसान नहीं है। इस प्रकार द्वितीयअफीम युद्ध की परिस्थितियाँ निर्मित हुई।
द्वितीय अफीम युद्ध के कारण
चीनी शासकों का भ्रम एवं अयोग्यता :
प्रथम अफीम युद्ध के पश्चात् भी चीनीशासकों को यह मिथ्या भ्रम था कि वे विदेशियों को नियंत्रित करने में समर्थ हैं।उधर मंचू शासकों की अयोग्यता के कारण देश में भ्रष्टाचार, शोषण, बेकारी, भुखमरी, षड़यंत्र एवं अफीम की तस्करी के कारण स्थिति दुर्बल एवं अराजकतापूर्ण होती जारही थी। इन परिस्थितियों का लाभ साम्राज्यवादी शक्तियाँ उठाना चाहती थीं।
नानकिंग की संधि से उत्पन्न असंतोष :
चीनी लोग 1849 ई. की नानकिंगसंधि को अपने लिये अपमानजनक मानते थे। इस कारण चीनवासियों के मन मेंविदेशियों के प्रति घृणा की भावना व्याप्त थी।
चीनियों को बलात मजदूर बनाना :
चीन में व्याप्त बेरोजगारी, बेकारी एवं भुखमरीका लाभ उठाकर विदेशी लोग चीनियों को मजदूर के रूप में जबरन क्यूबा एवं पेरूभेज रहे थे। जब मंचू शासन ने इसका विरोध किया तो संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई।
चीनी जहाजों से वसूली : जल दस्युओं को पकड़ने के बहाने विदेशियों ने चीनीजहाजों से उनकी रक्षा के नाम पर काफी धन वसूल किया।
व्यापारिक सुविधाओं के विस्तार की इच्छा :
ब्रिटेन, फ्रांस एवं अमेरिका चीन मेंव्यापारिक सुविधाओं का विस्तार चाहते थे। उनकी प्रमुख माँगें निम्न थीं – 1. चीन के आंतरिक भागों में प्रवेश की सुविधा। 2. पीकिंग में राजदूत रखने की सुविधा। 3. शुल्क दरें समाप्त करने की सुविधा। फरवरी, 1854 ई. में ब्रिटिश उच्चायुक्त लार्ड बेंटिंग ने यह प्रस्ताव रखे। चीनीप्रशासन ने इन माँगों की उपेक्षा की अत: इन परिस्थितियों में बल प्रयोग अपरिहार्य होगया।
फ्रांसीसी पादरी को फाँसी :
चीन के क्वांगत्सी स्थित अधिकारियों ने फरवरी 1856ई. में फ्रांस के कैथोलिक पादरी अगास्टे चेपरीलेन को विद्रोह के आरोप में बन्दीबनाकर फाँसी दे दी। फ्रांस इससे अत्यधिक नाराज हुआ। वह अब इसका बदला लेनाचाहता था।
लोर्चा एरो जहाज की घटना :
द्वितीय अफीम युद्ध का तात्कालिक कारण लोर्चाएरो जहाज की घटना सिद्ध हुआ। लोर्चा ऐरो जहाज का मालिक एक चीनी था मगरउसका कप्तान अंग्रेज था। जहाज पर अंग्रेजी झण्डा फहराया था। चीनी अधिकारीजलदस्युओं को पकड़ना चाहते थे। इसी तारतम्य में उन्होंने लोर्चा ऐरो जहाज कीतलाशी ली एवं उसके 12 चालकों को बंदी बना लिया। ब्रिटिश वाणिज्य दूत ने चीनके सम्मुख 2 माँग रखीं – 1. 12 जहाज चालकों को मुक्त किया जावे। 2. इस घटना के लिये चीन माफी माँगे। चीनी शासन ने जहाज चालकों को तो मुक्त कर दिया मगर माफी माँगने सेसाफ इन्कार कर दिया। अंग्रेज तो युद्ध का कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही रहे थे। इसीबात को लेकर अंग्रेजों ने चीन के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
फ्रांस द्वारा साथ –
चूँकि फ्रांस भी पादरी आगस्टे चेपरी लेने के मृत्यु दण्ड से नाराज था अत: उसने चीनके विरूद्ध युद्ध में अंग्रेजों का साथ दिया। रूस एवं अमेरिका इस युद्ध से अलग रहे। 30 मई,1858 ई. तक आंग्ल फ्रांसीसी सेनाएँ पीकिंग के निकट तीत्सिन तक घुस आयीं। अब चीन कीस्थिति अत्यन्त कमजोर हो गयी। उसके समक्ष अब संधि के अतिरिक्त कोई चारा न बचा। बाध्य होकर चीन ने विदेशियों के साथ तीत्सिन की संधि संपन्न की।
तीत्सिन एवं पीकिंग की संधि
तीत्सिन की संधि (जूून 1858 ई.) :
चीनी सरकार द्वारा नियुक्त सक्षम अधिकारी ने जून 1858 में इंग्लैण्ड, फ्रांस एवंअमेरिका के साथ पृथक-पृथक चार संधियाँ संपन्न कीं। तीत्सिन संधि की शर्तें थीं-
- 11 नवीन बन्दरगाह चीन ने विदेशियों हेतु व्यापार एवं निवास के लिये खोल दिये।
- यांगत्सी नदी में अब विदेशी जहाजों को रक्षा व्यापार की अनुमति प्राप्त हुई।
- विदेशी राष्ट्रों को पीकिंग में राजदूत रखने की सुविधा प्राप्त हुईं।
- चीन के आन्तरिक भागों में भी विदेशी व्यापारियों को आवागमन की सुविधा प्राप्त होगई।
- ईसाई मिशनरियों को भी चीन में धर्म प्रचार की सुविधा प्रदान कर दी गयी। इनकीसुरक्षा का दायित्व चीनी सरकार ने लिया।
- चीन ने 40 लाख तायल इंग्लैण्ड को एवं 20 लाख तायल फ्रांस को क्षतिपूर्ति के रूपमें देना स्वीकार किया।
- चीन ने शुल्क की नई एवं उदार दरें स्वीकार कीं।
- अफीम व्यापार को चीन ने कानूनी मान्यता प्रदान की।
पीकिंग संधि (अप्रैल 1860 ई.) –
तीत्सिन की संधि को स्वीकार करने में जब पीकिंग सरकार ने आनाकानी की तो युद्धपुन: आरंभ हो गया। चीनी सरकार को पीकिंग की संधि स्वीकार करना पड़ी। पीकिंग की संधि की शर्तें थी –
- पीकिंग की संधि द्वारा तीत्सिन संधि की शर्तों को मान्यता प्रदान की गई।
- विदेशी व्यापार हेतु तीत्सिन को भी खोल दिया गया।
- कोलून प्रायद्वीप ब्रिटेन को प्राप्त हुआ।
- पीकिंग में ब्रिटिश प्रतिनिधि को स्थायी निवास की सुविधा प्राप्त हुई।
- इस संधि द्वारा चीनी मजदूरों को विदेश भेजा जाना वैध घोषित कर दिया गया।
समीक्षा –
प्रथम एवं द्वितीय अफीम युद्ध में चीन की लगातार पराजयों ने मंचू सरकार काखोखलापन जग जाहिर कर दिया। अब आंतरिक भागों में विदेशियों को आवागमन कीसुविधा प्राप्त हो गयी। पश्चिमी धर्म प्रचारकों का चीन से भूमि क्रय की सुविधा प्राप्त हो गयी।दोनों संधियों द्वारा कुल 16 बन्दरगाह व्यापार हेतु खुलने से चीन की एकता, अखण्डता, एवंसम्प्रभुता को खतरा उत्पन्न हो गया।
प्रथम अफीम युद्ध में चीन के शोषण का जो अपूर्ण कार्य शेष बचा था उसे द्वितीयअफीम युद्ध ने पूर्ण कर दिया। विदेशी शक्तियों को चीन के रूप में एक दुधारू गाय प्राप्त होगयी, जिसका वे बहूविध शोषण करने लगे। चीनी तरबूज का मनचाहा बटवारा विदेशियों नेअपने बीच कर लिया।
संधियों द्वारा साम्राज्यवाद के नवीन रूप की स्थापना
प्रथम एवं द्वितीय अफीम युद्ध द्वारा यूरोपीय शक्तियों ने चीन में अपनी साम्राज्यवादीमहत्वाकांक्षा को पूर्ण किया। चीन अब अन्तर्राष्ट्रीय उपनिवेश बन गया। 1842 की नानकिंगएवं 1860 की पीकिंग संधि द्वारा पाश्चात्य् साम्राज्यवाद का एक निरंकुश स्वरूप उभर करसामने आया। चीन में साम्राज्यवाद के एक नए रूप की स्थापना हुई। इस साम्राज्यवाद कीमूलभूत विशेषताएँ थीं –
- 1842 की नानकिंग संधि द्वारा ब्रिटेन ने हाँग-काँग चीन से प्राप्त कर लिया।हाँग-काँग की स्थिति एक क्राउन कालोनी के समान थी। चीन का अब इसके साथकोई संबंध नहीं रह गया। हाँग-काँग के बहुसंख्यक नागरिक चीनी होते हुए भीराजनीतिक दृष्टि से यह ब्रिटेन के अधीन था।
- नानकिंग संधि द्वारा 5 एवं तीत्सिन की संधि द्वारा 11 इस प्रकार दोनों संधियों द्वाराकुल 16 बन्दरगाह नगर अब पश्चिमी शक्तियों के प्रभुत्व में आ गये। इन्हें संधि केअधीन बन्दरगाह (Treaty Port) कहा जाता है। इन नगरों में धीरे-धीरे विदेशीबस्तियों का विकास हुआ जो चीन के नियंत्रण से स्वतंत्र थीं। राज्य क्षेत्रातीय अधिकारके कारण यहाँ विदेशी शासन का ही स्वरूप बन गया।
- 1860 के पश्चात् आयात एवं निर्यात पर वसूले जाने वाले कर का कार्य विदेशी लोगोंने अपने हाथ में लिया। इम्पीरियल मेरीटाइम कस्टम सर्विस का प्रथम अध्यक्ष एकआयरिश राबर्ट हार्ट था। तट कर की वसूली विदेशियों के हाथ में जाने से चीनीसरकार को अत्यंत आर्थिक हानि हुई।
- चीन का समस्त विदेशी व्यापार अब चीनियों के स्थान पर विदेशी व्यापारियों के हाथआ गया।
- चीनी बन्दरगाह नगरों में विदेशी बस्तियाँ स्थापित हुई। ये चीनी लोगों से नाम मात्रका संपर्क रखते थे। अब स्थिति 1839 के पूर्णत: विपरीत थी। अब ये विदेशी अपनेआपको श्रेष्ठ एवं चीनियों को हेय समझने लगे।
इस प्रकार प्रथम एवं द्वितीय अफीम युद्ध द्वारा पाश्चात्य शक्तियों ने चीन में साम्राज्यवादके एक नए रूप की स्थापना की। चीन की सरकार अब इनके समक्ष अपने आपको अत्यन्तलुटा-पिटा एवं असहाय महसूस करती थी।
Web Title: Indian History अफीम युद्ध
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